दीवाली : इतिहास और विकास की यात्रा

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दीवाली : इतिहास और विकास की यात्रा


दीवाली : इतिहास और विकास की यात्रा

प्रकाश की अनंत यात्रा का एक पड़ाव

भारतीय सभ्यता के विशाल कालखंड में दीवाली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का वह दीपस्तंभ है जो सदियों से अंधकार के विरुद्ध प्रकाश की, अज्ञान के विरुद्ध ज्ञान की, और निराशा के विरुद्ध आशा की अनवरत लड़ाई का प्रतीक रहा है। कार्तिक मास की अमावस्या की वह रात्रि, जब आकाश में चंद्रमा नहीं होता, समूचा भारतवर्ष अपने घरों, गलियों और मंदिरों में दीप प्रज्वलित कर एक ऐसा आलोक रचता है जो किसी भौतिक प्रकाश से कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। यह आलोक है मनुष्य के भीतर के उस विश्वास का, जो अंधेरे को स्वीकार नहीं करता, जो हर पतन के बाद पुनरुत्थान का संकल्प लेता है।

दीवाली का इतिहास खोजने निकलें तो यह किसी एकल घटना या तिथि तक सीमित नहीं रहता। यह उस सांस्कृतिक स्मृति का विस्तार है जो अनेक युगों, अनेक कथाओं और अनेक विश्वासों को अपने भीतर समेटे हुए है। प्राचीन ग्रंथों में इसके संकेत बिखरे पड़े हैं — स्कंद पुराण और पद्म पुराण में कार्तिक मास में दीप दान की महिमा का वर्णन मिलता है। नारद पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति कार्तिक अमावस्या को दीप जलाता है, वह अंधकार को दूर कर देवताओं को प्रसन्न करता है।

परंतु इस पर्व का सर्वाधिक लोकप्रिय स्वरूप रामायण की कथा से जुड़ा है। चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण कर, रावण का संहार कर, जब राम अयोध्या लौटे, तो नगरवासियों ने घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में इस प्रसंग का मार्मिक चित्रण है। यह केवल एक राजा का राज्य में प्रवेश नहीं था — यह धर्म की अधर्म पर विजय का उत्सव था, प्रजा के हृदय में अपने आदर्श नायक के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा की अभिव्यक्ति थी। अयोध्या की वह रात्रि, जब हर घर में दीप जले, भारतीय मानस में इतनी गहराई से अंकित हो गई कि सहस्राब्दियों बाद भी प्रत्येक दीवाली पर वही दृश्य पुनः रचा जाता है।

द्वापर युग की एक अन्य कथा भी दीवाली से संबद्ध है। श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक असुर का वध किया था, जिसने सोलह हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था। उनकी मुक्ति और नरकासुर के अंत का उत्सव भी दीपावली के रूप में मनाया जाने लगा। यहाँ भी वही प्रतीकात्मकता है — अत्याचार से मुक्ति, अन्याय का अंत, और प्रकाश की स्थापना।

किंतु यह पर्व केवल हिंदू परंपरा तक सीमित नहीं रहा। जैन धर्म में दीवाली का अत्यंत पवित्र स्थान है। ईसा पूर्व 527 में कार्तिक अमावस्या की रात्रि को भगवान महावीर ने पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया था। उस रात्रि अठारह राजाओं ने आदेश दिया कि नगर में दीप जलाए जाएं, क्योंकि ज्ञान का दीप बुझ गया है, अतः भौतिक दीपों से उस अंधकार को दूर किया जाए। जैन समुदाय आज भी दीवाली को महावीर निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है।

सिख परंपरा में भी यह पर्व विशेष महत्व रखता है। 1577 में अमृतसर में स्वर्ण मंदिर की नींव दीवाली के दिन रखी गई थी। 1619 में छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी ग्वालियर के किले से 52 राजाओं के साथ मुक्त हुए थे, जिसे 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस प्रकार दीवाली भारत की धार्मिक बहुलता और सांस्कृतिक समन्वय का भी प्रतीक बन गई।

क्षेत्रीय विविधता में छिपी एकता का सूत्र

भारत की भौगोलिक विस्तृति और सांस्कृतिक विविधता ने दीवाली को अनेक रूपों में ढाला है। उत्तर भारत में यह मुख्यतः राम की अयोध्या वापसी से जुड़ी है, जहाँ लक्ष्मी पूजन का विशेष विधान है। व्यापारी वर्ग इसे नववर्ष के रूप में मनाता है, नए बही-खाते प्रारंभ करता है। घरों की लिपाई-पुताई, रंगोली, तोरण और आकाशदीप की परंपरा यहाँ की विशेषता है।

दक्षिण भारत में दीवाली को 'दीपावली' कहा जाता है और यह नरकासुर वध से अधिक संबद्ध है। तमिलनाडु और केरल में प्रातःकाल तेल स्नान का विशेष महत्व है। यहाँ यह पर्व एक दिन पहले मनाया जाता है, जिसे 'नरक चतुर्दशी' कहते हैं। कर्नाटक में इसे 'दीपावली हब्ब' कहते हैं और गोवा में 'नरक चतुर्दशी' पर नरकासुर के पुतले जलाए जाते हैं।

बंगाल में दीवाली काली पूजा के रूप में मनाई जाती है। यहाँ लक्ष्मी के स्थान पर महाकाली की आराधना होती है, जो शक्ति और समय की देवी हैं। रात्रि में तांत्रिक अनुष्ठान होते हैं और प्रसाद में मांसाहार भी शामिल होता है — यह उत्तर भारत की दीवाली से सर्वथा भिन्न परंतु उतना ही पवित्र है।

गुजरात में दीवाली पाँच दिनों का महोत्सव है। धनतेरस से भाई दूज तक प्रत्येक दिन का अपना विशेष विधान है। नववर्ष की शुरुआत दीवाली के अगले दिन होती है। व्यापारिक समुदाय के लिए यह वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है।

महाराष्ट्र में वसुबारस से भाऊबीज तक का पंचदिवसीय उत्सव चलता है। यहाँ गायों की पूजा विशेष रूप से की जाती है। रंगोली को यहाँ 'रांगोली' कहते हैं और इसे बनाने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।

पंजाब में दीवाली को 'दीवे दी रात' कहा जाता है। यहाँ स्वर्ण मंदिर को लाखों दीपों से सजाया जाता है और यह दृश्य अद्भुत होता है।

यह क्षेत्रीय विविधता दीवाली की कमजोरी नहीं, बल्कि शक्ति है। यह दर्शाती है कि भारतीय सभ्यता ने कभी एकरूपता को थोपा नहीं, बल्कि विविधता को अपनी पहचान बनाया। हर क्षेत्र ने अपनी मिट्टी, अपनी जलवायु, अपने इतिहास और अपनी स्मृतियों के अनुसार इस पर्व को ढाला, परंतु सबमें एक सूत्र समान रहा — अंधकार पर प्रकाश की विजय।

स्वतंत्रता संग्राम में प्रकाश की प्रतीकात्मकता

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में, जब भारत परतंत्रता की काली रात्रि में डूबा था, दीवाली ने एक नया अर्थ प्राप्त किया। स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रवादी चिंतकों ने इस पर्व को राजनीतिक जागरण का प्रतीक बनाया। 'अंधकार से प्रकाश की ओर' — यह उपमा केवल आध्यात्मिक नहीं रही, बल्कि राजनीतिक संघर्ष का नारा बन गई।

लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव की तरह दीवाली को भी सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाने का आह्वान किया। उनका मानना था कि धार्मिक पर्वों के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाई जा सकती है। 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान दीवाली पर स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का संकल्प लिया गया। दीये, मिट्टी के खिलौने, देशी मिठाइयाँ — इन सबको राष्ट्रीयता का प्रतीक बनाया गया।

महात्मा गांधी ने दीवाली के प्रसंग में अनेक बार लिखा कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर यह सच्ची दीवाली होगी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दीवाली पर अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन हुए। दीपों की रोशनी में गुप्त सभाएं होती थीं, क्रांतिकारी साहित्य वितरित किया जाता था।

1947 में जब स्वतंत्रता मिली, तो उस वर्ष की दीवाली का महत्व अभूतपूर्व था। यह वास्तव में अंधकार से प्रकाश की यात्रा का समापन और नए युग का प्रारंभ था। जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण में कहा था कि आज हम न केवल दीप जला रहे हैं, बल्कि एक नए भारत के भवन में ज्ञान और प्रगति का दीप प्रज्वलित कर रहे हैं।

स्वतंत्रता के बाद भी दीवाली राष्ट्रीय महत्व का पर्व बना रहा। सीमा पर तैनात सैनिकों के लिए दीवाली पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दीवाली की शुभकामनाएं देते हैं। यह पर्व राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक बन गया है।

समय के प्रवाह में रूपांतरण की गाथा

किसी भी जीवंत परंपरा की तरह दीवाली भी समय के साथ परिवर्तित हुई है। यह परिवर्तन न तो पूर्णतः सकारात्मक है, न पूर्णतः नकारात्मक — यह समाज के विकास, आर्थिक संरचना के बदलाव और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं के पुनर्निर्धारण की स्वाभाविक प्रक्रिया है।

प्राचीन काल में दीवाली मुख्यतः कृषि समाज का पर्व थी। खरीफ की फसल कट चुकी होती थी, किसान के घर में अन्न आ चुका होता था, और यह समृद्धि का उत्सव था। लक्ष्मी की पूजा इसीलिए की जाती थी कि वह धन-धान्य की देवी हैं। घरों में गोबर से लिपाई होती थी, मिट्टी के दीये बनाए जाते थे, और पकवान घर में ही बनते थे। यह आत्मनिर्भरता और सरलता का पर्व था।

मध्यकाल में, जब नगरीकरण बढ़ा और व्यापारिक वर्ग का विस्तार हुआ, दीवाली का स्वरूप बदलने लगा। इसे नववर्ष से जोड़ा गया, बही-खातों की पूजा प्रारंभ हुई। यह पर्व अब केवल कृषि से नहीं, बल्कि वाणिज्य से भी जुड़ गया। मुगलकाल में भी दीवाली का उत्सव दरबारों में मनाया जाता था, हालांकि धार्मिक महत्व कम और सामाजिक महत्व अधिक था।

उन्नीसवीं सदी में औपनिवेशिक शासन के दौरान दीवाली में एक नया आयाम जुड़ा — पटाखों का प्रचलन। यह चीन से आया हुआ प्रभाव था, परंतु भारतीय समाज ने इसे उत्साहपूर्वक अपनाया। आतिशबाजी दीवाली का अभिन्न अंग बन गई, हालांकि इसका धार्मिक औचित्य कभी स्पष्ट नहीं रहा।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, विशेषकर 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण के युग में, दीवाली का चरित्र तीव्रता से बदलने लगा। यह अब केवल पर्व नहीं, बल्कि बाजार का सबसे बड़ा अवसर बन गया। विज्ञापनों की बाढ़ आ गई — कार से लेकर सोने तक, मोबाइल फोन से लेकर रियल एस्टेट तक, सब कुछ 'दीवाली धमाका ऑफर' में बिकने लगा। उपभोक्तावाद ने इस पर्व को अपने चंगुल में ले लिया।

घरों में अब मिट्टी के दीये नहीं, बिजली की झालरें सजती हैं। पकवान घर में नहीं, दुकानों से खरीदे जाते हैं। रंगोली स्टिकर से बनाई जाती है। परिवार के सदस्य मोबाइल पर मैसेज भेजकर शुभकामनाएं देते हैं, भले ही वे एक ही घर में हों। सामूहिकता का स्थान व्यक्तिवाद ने ले लिया है।

किंतु इस रूपांतरण को केवल पतन की दृष्टि से देखना भी अनुचित होगा। आज की दीवाली में समावेशिता अधिक है। विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोग इसे मनाते हैं। प्रवासी भारतीय विदेशों में भी दीवाली का उत्सव मनाते हैं, जिससे भारतीय संस्कृति का प्रचार होता है। महिलाओं की भूमिका अधिक केंद्रीय हुई है — वे अब केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि निर्णय लेने में भी भागीदार हैं।

सामाजिक संगठन अब गरीबों के लिए दीवाली मनाते हैं। अनाथालयों, वृद्धाश्रमों और अस्पतालों में दीये जलाए जाते हैं। यह करुणा और समानता का नया आयाम है, जो प्राचीन काल में शायद इतना व्यापक नहीं था।

आधुनिकता के द्वंद्व में दीवाली

इक्कीसवीं सदी की दीवाली अनेक विरोधाभासों से घिरी है। एक ओर यह पर्व पहले से अधिक भव्यता से मनाया जाता है — नगरों में सजावट, होटलों में विशेष आयोजन, कॉरपोरेट पार्टियाँ — सब कुछ भव्य और चमकदार है। दूसरी ओर इसके मूल आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश धुंधले पड़ते जा रहे हैं।

आर्थिक दृष्टि से दीवाली का महत्व बहुत बढ़ गया है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए स्वर्णिम समय है। अक्टूबर-नवंबर में बाजार में तेजी आती है, व्यापार चरम पर होता है। छोटे कारीगर और दुकानदार साल भर की कमाई का बड़ा हिस्सा इसी समय करते हैं। पर्यटन उद्योग को भी लाभ होता है। इस दृष्टि से दीवाली राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार है।

परंतु इसी आर्थिकता ने असमानता को भी बढ़ाया है। जो वर्ग पहले से संपन्न है, वह और अधिक खर्च करता है। गरीब वर्ग के लिए यह पर्व कर्ज का कारण भी बन सकता है। सामाजिक दबाव है कि दीवाली पर नए कपड़े, उपहार और मिठाइयाँ अवश्य होनी चाहिए। यह दबाव कभी-कभी परिवारों को आर्थिक संकट में डाल देता है।

पर्यावरणीय दृष्टि से दीवाली की स्थिति चिंताजनक है। आतिशबाजी से वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच जाता है। दिल्ली जैसे नगरों में दीवाली के बाद वायु गुणवत्ता सूचकांक 'गंभीर' श्रेणी में आ जाता है। श्वास संबंधी रोगियों, बच्चों और वृद्धों के लिए यह जानलेवा हो सकता है। ध्वनि प्रदूषण से पशु-पक्षियों को भी कष्ट होता है।

इसके विरुद्ध पिछले कुछ वर्षों में जागरूकता बढ़ी है। 'ग्रीन दीवाली', 'इको-फ्रेंडली दीवाली' जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं। न्यायालयों ने पटाखों पर प्रतिबंध लगाए हैं। समाज का एक वर्ग स्वेच्छा से पटाखे नहीं जलाता और इस बचत को दान में देता है। यह सकारात्मक परिवर्तन है।

परंतु सबसे गहरा प्रश्न है — क्या आज की दीवाली अपना मूल संदेश खो चुकी है? क्या यह केवल उपभोग और प्रदर्शन का पर्व बन गया है? क्या हम दीये तो जलाते हैं परंतु अपने भीतर के अंधकार को नहीं देखते?

दीवाली का मूल संदेश आत्मशुद्धि का है — बाहरी सफाई के साथ आंतरिक सफाई। यह आत्मावलोकन का समय है, जब हम अपनी कमजोरियों, अहंकार और द्वेष को जलाएं। यह क्षमा का पर्व है, जब हम पुरानी कटुताएं भुलाकर नए संबंधों की शुरुआत करें। यह उदारता का पर्व है, जब हम अपनी समृद्धि में दूसरों को भी भागीदार बनाएं।

आज के समय में यह संदेश कितना प्रासंगिक है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सोशल मीडिया पर दीवाली के दिन सबसे अधिक संदेश भेजे जाते हैं, परंतु सबसे कम सार्थक बातचीत होती है। हम एक-दूसरे को 'हैप्पी दीवाली' लिखते हैं, परंतु यह नहीं पूछते कि सामने वाला वास्तव में कैसा है। हम घरों में रोशनी करते हैं, परंतु समाज के अंधकारपूर्ण कोनों की ओर नहीं देखते।

यह विडंबना है कि जिस पर्व का उद्देश्य समानता और भाईचारा बढ़ाना था, वह अब भेदभाव का कारण भी बनता है। अमीर और गरीब के बीच की खाई दीवाली पर और चौड़ी हो जाती है। जातिगत विभाजन भी इस पर्व में झलकते हैं — कुछ समुदायों के लिए यह भव्य उत्सव है, कुछ के लिए केवल औपचारिकता।

भविष्य की ओर : संभावनाएं और चुनौतियां

दीवाली की यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है। यह निरंतर विकसित हो रही है, और इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम इसे कैसे ढालते हैं। क्या हम इसे केवल उपभोक्तावाद के हवाले कर देंगे, या इसे पुनः अपने मूल मूल्यों से जोड़ेंगे?

भारतीय समाज के सामने यह चुनौती है कि वह परंपरा और आधुनिकता में संतुलन बनाए। दीवाली को पर्यावरण के अनुकूल बनाना आवश्यक है, परंतु इसकी आत्मा को नष्ट किए बिना। इसे समावेशी बनाना जरूरी है, ताकि समाज का प्रत्येक वर्ग इसमें भागीदार बन सके।

शिक्षा का दायित्व है कि वह नई पीढ़ी को दीवाली का वास्तविक अर्थ समझाए। बच्चों को यह बताना होगा कि दीवाली केवल पटाखे और मिठाइयों का पर्व नहीं, बल्कि मूल्यों और संस्कारों का पर्व है। उन्हें सिखाना होगा कि प्रकाश केवल बाहर नहीं, बल्कि भीतर भी फैलाना है।

सरकार और प्रशासन की भी जिम्मेदारी है। पर्यावरण नियमों को सख्ती से लागू करना, सार्वजनिक स्थानों पर पारंपर

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