हिंदी दिवस: एक दिन का प्रेम, 364 दिन का विछोह
सभ्यतागत पाखंड का महोत्सव
आज फिर से वो पवित्र दिन आ गया है जब हम अपनी मातृभाषा के साथ एक दिन का इश्क करने का नाटक करेंगे। 14 सितंबर - यह वो तारीख है जब पूरा देश अचानक से अपनी खोई हुई भाषायी आत्मा के लिए रोने का अभिनय करता है।
यह हमारे समय का सबसे बड़ा सांस्कृतिक विरोधाभास है। हम उसी भाषा के लिए आज आंसू बहाएंगे जिसे हमने कल तक सामाजिक शर्मिंदगी समझा था। आज हिंदी हमारी 'गर्व की भाषा' है, कल फिर से 'पिछड़ेपन का निशान' बन जाएगी।
मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह सामूहिक मानसिक उलझन का बेहतरीन उदाहरण है, दर्शन की भाषा में अस्तित्ववादी झूठे विश्वास का परफेक्ट नमूना।
व्हाट्सऐप विश्वविद्यालय का भाषायी ज्ञान
आज सुबह से ही व्हाट्सऐप ग्रुप्स में भाषाविज्ञान के पीएचडी विद्वानों की भरमार है। वही अंकल जो "जीएम" और "जीएन" के अलावा कुछ नहीं लिखते, आज देवनागरी में शोध प्रबंध लिख रहे हैं।
"हिंदी भाषा सभी भाषाओं की जननी है" - यह गहरा कथन उसी व्यक्ति का है जो कल तक अपने बेटे को "बेटा" की बजाय "सन" कहकर पुकारता था। गूगल ट्रांसलेट की सहायता से आज सभी भारतेंदु हरिश्चंद्र बन गए हैं।
सबसे मजेदार तो यह है कि फॉरवर्ड मैसेजेस में भी आज दार्शनिक गहराई आ गई है। "भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, आत्मा की अभिव्यक्ति है" - वाह! यही तो आधुनिक भाषाविज्ञान का सार है। लेकिन कल से फिर "वासअप ब्रो!" चलेगा।
कॉर्पोरेट जगत का भाषायी नाटक
ऑफिस में आज जो बौद्धिक कॉमेडी चल रही है, वो किसी भी हास्य नाटक से कम मजेदार नहीं। सीईओ जो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में "सिनर्जिस्टिक ऑप्टिमाइज़ेशन" की बात करता है, आज "सामंजस्यपूर्ण अनुकूलन" कह रहा है।
बोर्ड मीटिंग्स में "क्वार्टरली टार्गेट्स" आज "त्रैमासिक लक्ष्य" बन गए हैं। मार्केटिंग हेड जो "कस्टमर इंगेजमेंट" पर पीएचडी थीसिस लिख सकता है, आज "ग्राहक सहभागिता" में संघर्ष कर रहा है।
यह ऑर्वेलीयन न्यूस्पीक का देसी संस्करण है। हम भाषा को विचारधारा के औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं - संदर्भ के हिसाब से मतलब बदलते रहते हैं। आज हिंदी = देशभक्ति, कल अंग्रेजी = व्यावसायिकता।
शैक्षणिक संस्थानों का भाषायी दोहरापन
स्कूलों में तो पूरा नाटक ही चल रहा है। वही प्रिंसिपल जो एडमिशन इंटरव्यू में पैरेंट्स से पूछती है "क्या आपका बच्चा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता है?", आज मॉर्निंग असेंबली में "हिंदी हमारी संस्कृति की आत्मा है" का लेक्चर दे रही है।
टीचर्स की हालत और भी दयनीय है। इंग्लिश मीडियम की टीचर आज बच्चों से कह रही है "आज से हिंदी में बात करो", जबकि वो खुद "वेरी गुड" को "बहुत अच्छा" कहने में झिझक रही है।
बच्चों की तो अजीब मानसिक दशा है। कल तक जो भाषा "गंवारों की भाषा" थी, वो आज अचानक "महान भाषा" कैसे हो गई? इसे ही तो पावलोवीयन कंडिशनिंग का नतीजा कहते है - हम व्यवस्थित रूप से अपने बच्चों को हिंदी के प्रति हीनभावना पैदा करने के लिए ट्रेन कर रहे हैं।
सामाजिक मीडिया का दिखावटी राष्ट्रवाद
इंस्टाग्राम पर आज सभी इन्फ्लुएंसर्स अचानक से कबीर दास बन गए हैं। कैप्शन्स में दर्शन की गंगा बह रही है। लेकिन यह सब दिखावटी सच्चाई है, कृत्रिम वास्तविकता का परफेक्ट उदाहरण।
फेसबुक पर जो पोस्ट्स वायरल हो रहे हैं, वे सच्ची भावनाओं से ज्यादा सामाजिक मान्यता की भूख को दिखाते हैं। हम एक आभासी सांस्कृतिक पहचान बना रहे हैं जो हमारे असली भाषायी व्यवहार से पूरी तरह कटी हुई है।
ट्विटर पर तो बौद्धिक हस्तमैथुन का त्योहार चल रहा है। "भाषा सोच को आकार देती है" जैसी बातों को बहुत सरल बनाकर दार्शनिक ट्वीट्स बनाए जा रहे हैं। लेकिन यह सब कल मेमोरी होल में चला जाएगा।
राजनीतिक वर्ग का भाषायी अवसरवाद
नेताओं का आज का प्रदर्शन तो मैकियावेली भी देखकर प्रभावित हो जाते। वही लीडर्स जो जी-20 समिट में अंग्रेजी की धाराप्रवाहता से वर्ल्ड लीडर्स को प्रभावित करते हैं, आज ग्रामीण चुनावी क्षेत्र को संबोधित करने के लिए शुद्ध हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं।
यह पारंपरिक राजनीतिक अवसरवाद है - भाषा को चुनावी गणित का औजार बनाना। हिंदी यहां प्रामाणिक संवाद माध्यम नहीं, बल्कि वोट बैंक जुटाने का साधन है।
इनके बच्चे ऑक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज में पढ़ते हैं, जीवनशैली पूरी तरह पश्चिमी है, लेकिन पब्लिक डिस्कोर्स में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा लहराते रहते हैं। यह उत्तर-औपनिवेशिक कुलीन मानसिकता का चिरकालीन लक्षण है - सार्वजनिक में कुछ और , निजी में कुछ और।
मीडिया का भाषायी सर्कस
न्यूज़ चैनल्स पर जो भाषायी नाटक चल रहा है, वो "माध्यम ही संदेश है" के सिद्धांत का मज़ाक बनाता है। कंटेंट हिंदी में है लेकिन फॉर्मेट और प्रेजेंटेशन स्टाइल वेस्टर्न मीडिया की कॉपी है।
प्राइम टाइम डिबेट्स में आज पैनलिस्ट्स को हिंदी में बहस करने के लिए कहा जा रहा है। "व्हाट्स योर टेक ऑन दिस?" की जगह "इस पर आपका क्या मत है?" - जबरदस्त ट्रांज़िशन देखकर हंसी भी आती है और दुख भी होता है।
ब्रेकिंग न्यूज़ में भी आज "तत्काल समाचार" चल रहा है। लेकिन यह सब कृत्रिम है - जैसे कोई अभिनेता अपना प्राकृतिक लहजा दबाकर दूसरी भाषा में अभिनय करने की कोशिश कर रहा हो।
अस्तित्ववादी संकट का विश्लेषण
हमारी यह भाषायी स्किजोफ्रेनिया दरअसल गहरे अस्तित्ववादी संकट को दिखाती है। हम सार्त्र के 'बैड फेथ' में जी रहे हैं - अपनी प्रामाणिक भाषायी सत्ता को दबाकर कृत्रिम पहचान अपना रहे हैं।
हैदेगर के 'बीइंग एंड टाइम' के संदर्भ में देखें तो हमारी प्रामाणिक भाषायी अस्तित्वता आज कृत्रिम सामाजिक अपेक्षाओं के नीचे दब गई है। हम अपनी सच्ची भाषायी चेतना से पराए हो गए हैं।
उत्तर-औपनिवेशिक पहचान का द्वंद्व
आज का यह भाषायी नाटक दरअसल हमारी उत्तर-औपनिवेशिक स्थिति का लक्षण है। हमने औपनिवेशिक आकाओं की भाषा को सफलता और प्रगति का प्रतीक मान लिया है, लेकिन साथ ही अपनी सांस्कृतिक जड़ों के लिए एक रोमांटिक लगाव भी बनाए रखा है।
फ्रांज़ फैनन के 'ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क' की तरह, हम भी भाषायी मुखौटे पहनकर जीते हैं। घर में हिंदी, बाहर अंग्रेजी - यह हमारा डबल कॉन्शसनेस है।
डिजिटल युग की नई चुनौतियां
आज के डिजिटल युग में भाषा की राजनीति और भी जटिल हो गई है। गूगल, फेसबुक, अमेज़न जैसी कंपनियां हिंदी इंटरफेस लाने पर हमें लगता है कि वे हमारी भाषा का सम्मान कर रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि यह सब मार्केट कैप्चर की रणनीति है।
यूट्यूब पर हिंदी कंटेंट की बाढ़ आ गई है, लेकिन इसका मकसद भाषा प्रेम नहीं बल्कि व्यावसायिक लाभ है। हम भाषा को कंज्यूमर प्रोडक्ट बना रहे हैं।
व्यंग्य का आखिरी मोड़
सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम हिंदी दिवस मनाकर अपने गुनाहों की माफी मांग रहे हैं। जैसे कोई पापी एक दिन मंदिर जाकर साल भर के पापों का प्रायश्चित करने की कोशिश करता है।
हमने हिंदी को एक दिन की प्रेमिका बना दिया है - 14 सितंबर को प्रेम की कसमें खाते हैं, बाकी 364 दिन बेवफाई करते हैं। यह हमारी भाषायी व्यभिचार की पराकाष्ठा है।
भाषायी स्वराज का सपना
तो साहब, हिंदी दिवस मुबारक हो! आज का दिन एंजॉय करिए, हिंदी में बात करिए, पोस्ट करिए, फीलिंग्स एक्सप्रेस करिए। लेकिन कल से प्लीज़ वापस से "हाउ आर यू डूइंग?" में मत आ जाइएगा।
आखिर में बस यही कहूंगा - हिंदी दिवस एक दिन नहीं, जीवनशैली होनी चाहिए। लेकिन अपन तो वैसे हैं जैसे जिम मेंबरशिप लेकर सिर्फ जनवरी में जाते हैं!
चलिए, अब मैं भी जाकर अपने व्हाट्सऐप स्टेटस पर "हिंदी हमारी आत्मा है" लिख देता हूं। कल से फिर "गुड वाइब्स ओनली" लगा दूंगा!
हैप्पी हिंदी दिवस! - अरे यार, फिर से अंग्रेजी हो गई! 😅
पी.एस. - यह लेख पूरी तरह व्यंग्य में लिखा गया है। अगर आपको लगे कि यह आपकी भाषायी संवेदनाओं को आहत करता है, तो कृपया इसे गंभीरता से न लें। बस हंसिए और सोचिए कि कहीं हम भी तो ऐसे ही नहीं हैं!
बहुत ही सुंदर तरीके से हिंदी की वास्तविक स्थिति के बारे में बताया गया है 👌👌
ReplyDeleteशुक्रिया ❤
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