अलंकार: परिभाषा, प्रकार और उदाहरण

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Alankaar in Hindi Grammar,अलंकार: परिभाषा, प्रकार और उदाहरण, Figure of speech in Hindi


अलंकार: परिभाषा, प्रकार और उदाहरण

(Alankaar in Hindi Grammar)
(Figure of Speech in Hindi Grammar)

प्रस्तावना

अलंकार हिंदी साहित्य की वह अद्वितीय और जीवंत कला है, जो काव्य में सौंदर्य, रस, भाव की अभिव्यक्ति और भाषिक चमत्कार को चरम सीमा पर पहुंचाती है। यह भाषा को ऐसा मनमोहक और प्रभावशाली रूप देती है कि वह न केवल सुनने या पढ़ने में मधुर लगती है बल्कि पाठक या श्रोता के हृदय पर अमिट छाप छोड़ती है। अलंकार काव्य के लिए वही है जो आभूषण किसी सुंदर व्यक्ति के लिए होते हैं। जिस प्रकार आभूषण व्यक्ति की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकार काव्य की शोभा, सौंदर्य और प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते हैं।

इस विस्तृत लेख में अलंकार के सभी मुख्य प्रकार, उपप्रकार, उप-उपप्रकार, और उनके सूक्ष्म भेदों के साथ गहन व्याख्या, प्रामाणिक उदाहरण और व्यावहारिक प्रयोग प्रस्तुत किए गए हैं। यह सामग्री विद्यार्थियों, शिक्षकों, शोधकर्ताओं और साहित्य प्रेमियों के लिए एक संपूर्ण मार्गदर्शक का काम करेगी।

 

अलंकार की विस्तृत परिभाषा

'अलंकार' शब्द संस्कृत भाषा से आया है, जो 'अलम्' (पर्याप्त/सजावट) और 'कार' (करने वाला) से मिलकर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'सजावट करने वाला' या 'भूषित करने वाला'। काव्यशास्त्र में अलंकार वे भाषा-सौंदर्य के परिष्कृत उपकरण हैं जो कविता को मधुर, प्रभावशाली, रसपूर्ण और चमत्कारिक बनाते हैं।

अलंकार शब्द और अर्थ दोनों स्तरों पर अपना जादुई प्रभाव डालकर काव्य को ऐसा रूप देते हैं कि उसके भाव अधिक स्पष्ट, गहरे और सुंदर हो जाते हैं। ये काव्य की भाषा में वह विशेष गुण लाते हैं जो सामान्य बोलचाल की भाषा में नहीं होता। अलंकार के बिना काव्य एक शरीर के समान है जिसमें आत्मा का अभाव हो।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आचार्यों के मत

प्राचीन काल के आचार्य

आचार्य भामह (लगभग 6वीं शताब्दी):
भामह को अलंकारशास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने अलंकार को काव्य की भाषा की वक्रता (शब्द और अर्थ के विशेष एवं चमत्कारिक प्रयोग) के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार वक्रता ही काव्य का मूल तत्व है।


आचार्य दण्डी (7वीं शताब्दी):

दण्डी ने कुल 39 प्रकार के अलंकारों का वर्गीकरण और वर्णन किया, जिनमें से 4 शब्दालंकार और 35 अर्थालंकार थे। उनका प्रसिद्ध सूत्र है: "काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।"


आचार्य वामन:

वामन ने अलंकार को काव्य के शोभाकारक धर्म माना और गुण तथा अलंकार के बीच स्पष्ट अंतर किया।


आधुनिक काल के विद्वान:


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
ने रस सिद्धांत के अंतर्गत अलंकार की भूमिका को परिभाषित करते हुए इसे रस की वृद्धि में सहायक माना। उन्होंने अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व न मानकर इसे सहायक तत्व के रूप में स्थापित किया।

 

प्रमुख आचार्य और उनके योगदान:

आचार्यकालग्रंथमुख्य योगदान
भरत2री शताब्दीनाट्यशास्त्रअलंकार के बीज तत्व
भामह7वीं शताब्दीकाव्यालंकार38 अलंकारों का विवेचन
दण्डी7वीं शताब्दीकाव्यादर्शगुण-दोष सिद्धांत
उद्भट8वीं शताब्दीकाव्यालंकारसारसंग्रहअलंकार वर्गीकरण
वामन9वीं शताब्दीकाव्यालंकारसूत्ररीति सिद्धांत
आनंदवर्धन9वीं शताब्दीध्वन्यालोकध्वनि सिद्धांत
अभिनवगुप्त10वीं शताब्दीअभिनवभारतीध्वनि की व्याख्या
मम्मट11वीं शताब्दीकाव्यप्रकाशअलंकार की नवीन परिभाषा
विश्वनाथ14वीं शताब्दीसाहित्यदर्पणवक्रोक्ति सिद्धांत

अलंकार का त्रिविधा वर्गीकरण

अलंकार मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं:

शब्दालंकार (Shabdalankar) - शब्द की ध्वनि पर आधारित

अर्थालंकार (Arthaalankar) - अर्थ और भाव पर आधारित

उभयालंकार (Ubhayalankar) - शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित

 

वर्गपरिभाषामुख्य आधारउदाहरण
शब्दालंकारशब्द की ध्वनि पर आधारितवर्ण, शब्द की आवृत्तिअनुप्रास, यमक, श्लेष
अर्थालंकारअर्थ की विलक्षणता पर आधारितभाव, कल्पना, तुलनाउपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा
उभयालंकारशब्द और अर्थ दोनों पर आधारितद्विविध चमत्कारश्लेष के कुछ भेद


alankar ke bhed, alankar ka vargikaran, अलंकार के भेद


शब्दालंकार (Shabdalankar)

परिभाषा और विशेषताएं

शब्दालंकार वे होते हैं जो शब्दों की ध्वनि, उच्चारण, लय, आवृत्ति और स्वरूप से उत्पन्न होते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि यदि इनमें प्रयुक्त शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिए जाएं तो अलंकार का चमत्कार समाप्त हो जाता है। ये कविता को संगीतमय, लयबद्ध और कर्णप्रिय बनाते हैं।


1. अनुप्रास अलंकार

परिभाषा: जब काव्य में समान वर्णों (स्वर या व्यंजन) की मधुर पुनरावृत्ति होती है तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।

अनुप्रास के चार मुख्य प्रकार:


() छेकानुप्रास (Chekanupras)

परिभाषा: जब प्रथम वर्ण की आवृत्ति हो।

उदाहरण:

"इस करुणा कलुषित हृदय में"

"सुरभि सुकुमार सुशोभित"

व्याख्या: यहाँ 'क' और 'स' (प्रथम वर्ण) की आवृत्ति एक निश्चित क्रम में हो रही है जो कविता को मधुर लय प्रदान करती है।


() वृत्त्यनुप्रास (Vrittyanupras)

परिभाषा: जब एक या अधिक वर्ण बार-बार आते रहते हैं।

उदाहरण:

"चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थीं जल-थल में" (मैथिलीशरण गुप्त)

"कालिन्दी कूल कदम्ब की डारिन"

"तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए"

व्याख्या: इन उदाहरणों में 'च', 'क', 'त' वर्णों की निरंतर पुनरावृत्ति कविता में संगीतात्मकता और प्रवाह लाती है।


() लाटानुप्रास (Latanupras)

परिभाषा: जब शब्द और अर्थ दोनों की पुनरावृत्ति हो।

उदाहरण:

"पत्ता पत्ता बूटा बूटा, हाल हमारा जाने है"

"नेह नर्मदा बहे चल, बहे चल, बहे चल"

व्याख्या: यहाँ शब्द तो दोहराए गए हैं साथ ही उनका अर्थ भी वही है।


() अन्त्यानुप्रास (Antyanupras)

परिभाषा: जब काव्य पंक्तियों के अंत में समान ध्वनियाँ आती हैं अथवा अंत के वर्णो की पुनरावृत्ति हो।

उदाहरण:

"रघुपति राघव राजा राम"

"पतित पावन सीता राम"

"जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर"

व्याख्या: चरणों के अंत में समान ध्वनि से कविता में तालमेल और गेयता आती है।


2. यमक अलंकार

परिभाषा: जब एक ही शब्द कविता में दो या अधिक बार आता है और प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न होता है।

यमक के प्रकार:


() अभंग यमक

परिभाषा: बिना शब्द को तोड़े या विभाजित किए ही उसकी पुनरावृत्ति।

उदाहरण:

"कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। वा खाए बौराय जग, वा पाए बौराय।।" (बिहारी)
(पहला कनक = धतूरा, दूसरा कनक = सोना)

"तीन बेर खाती ये ते वे तीन बेर खाती हैं"
(पहला बेर = समय, दूसरा बेर = फल)

व्याख्या: यहाँ शब्द का रूप तो एक ही है पर अर्थ पूर्णतः भिन्न है, जो पाठक को चमत्कृत करता है।


(
) सभंग यमक

परिभाषा: शब्द के विभिन्न भागों या टुकड़ों में अलग-अलग अर्थ का प्रयोग।

उदाहरण:

"कर का मनका छांदि कै, मन का मनका फेर"
(मनका = माला के मोती, मन का = हृदय का)

"जगजीवन हैं जानि कै, जगजीवन कौ त्याग"
(जगजीवन = जगत के जीवन, जगजीवन = भगवान का नाम)

व्याख्या: शब्द के भागों को अलग करने से भिन्न अर्थ निकलते हैं।


3. श्लेष अलंकार

परिभाषा: जब कविता में कोई एक शब्द एक साथ दो या अधिक अर्थ व्यक्त करता है।

प्रसिद्ध उदाहरण:

रहीम के दोहे से:

"रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून।।"

व्याख्या: यहाँ 'पानी' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त है:

मोती के लिए = चमक/कांति

मानुष के लिए = सम्मान/प्रतिष्ठा

चूने के लिए = जल

अन्य उदाहरण:

"सुबरन को खोजत फिरे, कवि, कामी, अरु चोर"
(सुबरन = अच्छे वर्ण/अक्षर/ सुंदर स्त्री तथा सोना)


4. वक्रोक्ति अलंकार

परिभाषा: जब किसी की कही गई बात का अर्थ सुनने वाला वक्ता के अभिप्राय से अलग या विपरीत अर्थ में ग्रहण करता है।

वक्रोक्ति के प्रकार:


(
) श्लेष वक्रोक्ति

परिभाषा: श्लेष के कारण अर्थ में भिन्नता।

उदाहरण:

"कहाँ भव भोजन कहाँ अवधेसा"
(भव = संसार तथा शिव, भोजन = भोज राजा तथा भोजन)


(
) काकु वक्रोक्ति

परिभाषा: कंठ-ध्वनि या उच्चारण के कारण अर्थ में परिवर्तन।

उदाहरण:

"आये हो मधुमास के प्रियतम ऐहैं नाहिं"
इसे दो प्रकार से समझा जा सकता है:

प्रियतम यहाँ नहीं आए

प्रियतम यहाँ आए हैं या नहीं (संशय)

व्याख्या: उच्चारण की सूक्ष्म भिन्नता से अर्थ बदल जाता है।


5. पुनरुक्ति अलंकार

परिभाषा: जब शब्द की बार-बार आवृत्ति होती है किंतु अर्थ वही रहता है।

उदाहरण:

"बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी" (जयशंकर प्रसाद)

"मधुर मधुर मेरे दीपक जल"

"चल चल चल मेरे साथ"

व्याख्या: शब्द की पुनरावृत्ति से भाव की तीव्रता और कविता की लयात्मकता बढ़ती है।


6. विप्सा अलंकार

परिभाषा: जब हर्ष, शोक, आश्चर्य आदि भावों की अधिकता के कारण शब्दों की पुनरावृत्ति होती है।

उदाहरण:

"मारे-मारे फिरे हैं तात, लखन हमारे भ्रात" (तुलसीदास)

"बचाओ-बचाओ हे ईश्वर"

"हाय हाय यह कैसा समय आया"

व्याख्या: भावावेश के कारण शब्दों की आवृत्ति स्वाभाविक रूप से हो जाती है।

 

अर्थालंकार (Arthaalankar)

परिभाषा और विशेषताएं

अर्थालंकार वे होते हैं जो काव्य के अर्थ, भाव, कल्पना और विषयवस्तु को सजाते-संवारते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि यदि इनमें पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग कर दिया जाए तो भी अलंकार का चमत्कार बना रहता है। ये काव्य की भावनात्मक गहराई और कलात्मक सौंदर्य को बढ़ाते हैं।


1. उपमा अलंकार

परिभाषा: जहाँ किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु से समान गुणों के आधार पर की जाती है।

उपमा के चार अंग:

उपमेय: जिसकी उपमा दी जाए

उपमान: जिससे उपमा दी जाए

साधारण धर्म: समान गुण

वाचक शब्द: तुलना सूचक शब्द (सा, से, सम, जैसा, समान आदि)

उपमा के प्रकार:


) पूर्णोपमा

परिभाषा: जब उपमा के चारों अंग स्पष्ट रूप से विद्यमान हों।

उदाहरण:

"मुख मयंक सम मंजुल मनोहर" (तुलसीदास)

उपमेय: मुख

उपमान: मयंक (चंद्रमा)

साधारण धर्म: मनोहरता

वाचक शब्द: सम


(
) लुप्तोपमा

परिभाषा: जब उपमा के चारों अंगों में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो।

उदाहरण:

"कर कमल" (साधारण धर्म और वाचक शब्द लुप्त)

"मुख चन्द्र जैसा है" (साधारण धर्म लुप्त)

 


(
) मालोपमा

परिभाषा: जब अनेक उपमानों की माला से किसी एक उपमेय की शोभा बढ़ाई जाए।

उदाहरण:

"पीपर पात सरिस मन डोला"

"नील सरोज स्याम, हरित तड़ित लोचन"


2. रूपक अलंकार

परिभाषा: जब अत्यधिक समानता के कारण उपमेय में उपमान का निषेधरहित आरोप कर दिया जाता है।

रूपक के प्रकार:


(
) पूर्ण रूपक

परिभाषा: जब उपमेय का पूर्णतः लोप हो जाता है और केवल उपमान ही शेष रह जाता है।

उदाहरण:

"चरण कमल बंदौं हरिराई" (तुलसीदास)

"मुखचन्द्र" (मुख रूपी चन्द्र)


(
) अपूर्ण रूपक

परिभाषा: जब उपमेय और उपमान दोनों स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

उदाहरण:

"उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बाल पतंग"

"बैठि रही अति सघन बन, छाई प्रभु की माया"


3. उत्प्रेक्षा अलंकार

परिभाषा: जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाती है।

वाचक शब्द: मनु, मनहुँ, मानो, जनु, जानों, इव, मेरे जानते, निश्चय आदि।

उदाहरण:

"सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात। मनहुँ नीलमणि सैल पर, आतप परयो प्रभात।।" (जयशंकर प्रसाद)

"पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के"

व्याख्या: कवि कल्पना के आधार पर उपमा दे रहा है।


4. अतिशयोक्ति अलंकार

परिभाषा: जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति का इतना बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन हो कि लोक-सीमा का उल्लंघन हो जाए।

प्रसिद्ध उदाहरण:

"हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग। लंका सारी जल गई, गए निसाचर भाग।।"

"आगे नदिया पड़ी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।"

व्याख्या: महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की गति का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन।


5. मानवीकरण अलंकार

परिभाषा: जब प्राकृतिक वस्तुओं, जीव-जंतुओं या निर्जीव पदार्थों में मानवीय गुणों और क्रियाओं का आरोप किया जाता है।

उदाहरण:

"फूल हँसे कलियों से, इतरा गईं नारंगी डालियाँ"

"बीती विभावरी जाग री। अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा-घट ऊषा नागरी।।" (जयशंकर प्रसाद)

"चलती है तो हवा लगती है उषा चल रही सरीर है"


6. विभावना अलंकार

परिभाषा: जहाँ कारण के अभाव में भी कार्य का होना दिखाया जाए या असंभव प्रतीत होने वाला कार्य संभव दिखाया जाए।

उदाहरण:

"बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।" (तुलसीदास)
बिना पैर के चलना, बिना कान के सुनना जैसे असंभव कार्य को संभव दिखाना।

"बिन घन परत फुहार"

"हुई न धूप न छांह मिली"



 

7. दृष्टांत अलंकार

परिभाषा: जहाँ प्रस्तुत (मुख्य) और अप्रस्तुत (गौण) दोनों में बिंब-प्रतिबिंब भाव से पूर्ण साम्य हो।

उदाहरण:

"एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती। किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्यों सह सकती।।"

"सिर पर छत्र न पांव में पादुका। गुरु की आज्ञा सच निकली।।"


8. उदाहरण अलंकार

परिभाषा: जब किसी सामान्य बात को स्पष्ट करने के लिए विशेष उदाहरण दिया जाए।

उदाहरण:

"यदि सूरज निकलता है तो दिन हो जाता है, वैसे ही ज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है"

"सरवर तेहि अवसर सोह, जैसे मुक्ति पाप तजि जाह"


9. विरोधाभास अलंकार

परिभाषा: जहाँ वास्तव में विरोध न होकर केवल विरोध का आभास हो।

उदाहरण:

"बैन सुन्या जबतें मधुर, तबतें सुनत न बैन"

"या अनुरागी चित्त की, गति समझै नहिं कोय। ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल होय।।"


10. संदेह अलंकार

परिभाषा: जहाँ उपमेय में दो या अधिक उपमानों के होने का संशय हो।

उदाहरण:

"कहूँ कुसुम कह कहूँ कि कामिनी, कहूँ छवि कह छबि धाम। कहूँ सुधा कह सुरसरि सुन्दरी, कहूँ कमल गुन गाम।।"

"यह कमल है या चन्द्र है या मुख है मेरे प्राण प्यारे का"

 (अर्थालंकार के और भी कई भेद होते हैं पर मुख्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले ही लेख में सम्मिलित किये गये  हैं )

 उभयालंकार (Ubhayalankar)

परिभाषा और विशेषताएं

उभयालंकार वे होते हैं जिनमें शब्द और अर्थ दोनों के चमत्कार एक साथ दिखाई देते हैं। ये दुर्लभ और कलाकार की परम काव्य-निपुणता के परिचायक होते हैं।

उदाहरण:
जब यमक के साथ रूपक या श्लेष के साथ उपमा आदि का सुंदर मेल हो।

 

अलंकार की पहचान की युक्तियाँ

अलंकारपरिभाषाउदाहरणस्रोत
अनुप्रासवर्णों की आवृत्ति"चारु चंद्र की चंचल किरणें"तुलसीदास
यमकएक शब्द, अलग अर्थ"काली घटा का घमंड घटा"बिहारी
श्लेषएक शब्द, कई अर्थ"चिरजीवो जोरी जुरै"रहीम
उपमासमानता दिखाना"सिय मुख मयंक सम"तुलसीदास
रूपकपूर्ण समानता"चरण-कमल बंदौ हरि राई"तुलसीदास
उत्प्रेक्षासंभावना व्यक्त करना"मनो नीलमनि सैल पर"तुलसीदास
अतिशयोक्तिबढ़ा-चढ़ाकर कहना"हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आग"बिहारी


अलंकार का महत्व और प्रभाव

साहित्यिक महत्व:

भाषिक सौंदर्य: कविता को मधुर और संगीतमय बनाना

भावात्मक प्रभाव: पाठक के मन पर गहरा प्रभाव

कलात्मक उत्कर्ष: काव्य कला की उन्नति

रसात्मकता: काव्य में रस की वृद्धि

 

शैक्षिक उपयोगिता:

भाषा की समझ: भाषा की शक्ति और सामर्थ्य की पहचान

सृजनात्मकता: रचनात्मक सोच का विकास

साहित्यिक रुचि: काव्य के प्रति रुझान

सांस्कृतिक संस्कार: भारतीय काव्य परंपरा की समझ

 

निष्कर्ष

अलंकार हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं जो काव्य में सौंदर्य, भाव, और आकर्षण की त्रिवेणी प्रवाहित करते हैं। शब्दालंकार कविता की ध्वनि और लय को संगीतमय बनाते हैं, जबकि अर्थालंकार भावों को गहराई और व्यापकता प्रदान करते हैं। उभयालंकार में दोनों का सुंदर समन्वय होता है।

आधुनिक युग में भले ही अलंकारों का प्रयोग कम हो गया हो, किंतु साहित्य की गहरी समझ, भाषा की सूक्ष्म शक्ति की पहचान, और काव्य-रसास्वादन के लिए अलंकारों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। ये न केवल काव्य की शोभा बढ़ाते हैं बल्कि भाषा की असीम संभावनाओं से परिचय कराते हैं।

छात्रों और साहित्य प्रेमियों को चाहिए कि वे अलंकारों को केवल रटकर न सीखें बल्कि उनकी आत्मा को समझें, प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं में इनकी पहचान करें और स्वयं भी इनका सृजनात्मक प्रयोग करके भाषा की इस कलात्मक विधा में दक्षता प्राप्त करें।

अलंकार वास्तव में भाषा के जादूगर हैं जो शब्दों को अमृत में बदल देते हैं और काव्य को अमर बना देते हैं।

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