मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय: एक महान कलमकार की अमर कहानी
परिचय
हिंदी साहित्य के आकाश में जब भी कोई तारा सबसे चमकीला दिखाई देता है, तो वह मुंशी प्रेमचंद का नाम है। 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि से विभूषित प्रेमचंद जी ने न केवल हिंदी कथा साहित्य की नींव रखी, बल्कि भारतीय समाज के यथार्थ को अपनी लेखनी से इतनी गहराई के साथ चित्रित किया कि आज भी उनकी रचनाएं प्रासंगिक लगती हैं। वे एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपने शब्दों से समाज का दर्पण बनाया और आम आदमी की आवाज को साहित्य में स्थान दिलाया।
प्रेमचंद की महानता इसी बात में निहित है कि उन्होंने साहित्य को महलों से निकालकर गांवों की धूल में बिठाया। उनके पात्र वे लोग हैं जो सड़कों पर मिलते हैं, खेतों में काम करते हैं और जीवन के संघर्षों से जूझते हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन - संघर्षों की शुरुआत
31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में जन्मे धनपत राय के जीवन की शुरुआत ही चुनौतियों से भरी थी। पिता अजायब राय एक छोटे डाकखाने में क्लर्क थे, और माँ आनंदी देवी एक सरल ग्रामीण महिला। जब प्रेमचंद महज आठ साल के थे, तब उनकी माँ का देहांत हो गया। यह पहला बड़ा आघात था जिसने बालक धनपत राय के मन पर गहरी छाप छोड़ी।
बचपन से ही किताबों के प्रति लगाव रखने वाले प्रेमचंद की शिक्षा में कई बाधाएँ आईं। गरीबी के कारण कभी स्कूल की फीस नहीं भर पाते, कभी किताबें खरीदने के पैसे नहीं होते। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। 1898 में मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी शुरू की। महज 20 रुपए की तनख्वाह थी, लेकिन यही उनकी आजीविका का साधन बना।
संघर्ष और जीवन-यात्रा - कठिनाइयों से मुकाबला
प्रेमचंद का वैवाहिक जीवन भी संघर्षों से भरा रहा। पहली शादी 15 साल की उम्र में हुई, लेकिन यह रिश्ता सफल नहीं रहा। बाद में उन्होंने शिवरानी देवी से विवाह किया, जो उनकी जीवनसंगिनी बनीं और लेखन में भी सहयोग करती रहीं।
आर्थिक तंगी हमेशा उनके सिर पर मंडराती रही। शिक्षक की नौकरी से घर चलाना मुश्किल था, फिर भी उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लिखने के कारण उन्हें कई बार परेशानियों का सामना करना पड़ा। उनकी पहली कहानी संग्रह 'सोज़-ए-वतन' को जिसे उन्होने 'नवाब राय' नाम से लिख था, अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया था। इसके बाद वे "प्रेमचंद" नाम से लिखने लगे।
1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। यह फैसला आर्थिक रूप से कठिन था, लेकिन उन्होंने अपने आत्मसम्मान को प्राथमिकता दी। इसके बाद वे पूरी तरह लेखन और प्रकाशन के काम में जुट गए।
साहित्यिक उपलब्धियाँ - यथार्थवाद के जनक
मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को आदर्शवाद से निकालकर यथार्थवाद की राह पर ला दिया। उनसे पहले हिंदी उपन्यासों में तिलिस्म और कल्पना की प्रधानता थी, लेकिन प्रेमचंद ने समाज की वास्तविक समस्याओं को अपने साहित्य का विषय बनाया। किसान, मजदूर, विधवा, दलित - समाज के हर वर्ग को उन्होंने अपनी रचनाओं में स्थान दिया।
उन्होंने हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखा। उर्दू में 'नवाब राय' के नाम से और हिंदी में 'प्रेमचंद' के नाम से लिखने वाले इस महान लेखक ने भाषाई एकता की मिसाल भी पेश की। उनकी गिनती विश्व के महान कथाकारों में होती है। टॉल्स्टॉय और दिकेंस की तरह उन्होंने भी अपने साहित्य से समाज सुधार का काम किया।
प्रमुख रचनाएँ - अमर कृतियों का खजाना
प्रेमचंद की रचनाओं की चर्चा करते समय सबसे पहले उनके उपन्यासों का नाम आता है। 'गोदान' उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है, जिसमें भारतीय किसान होरी के माध्यम से ग्रामीण जीवन की त्रासदी को दिखाया गया है। 'गबन', 'कर्मभूमि', 'निर्मला', और 'सेवासदन' जैसे उपन्यासों में उन्होंने समाज की विभिन्न समस्याओं को उठाया।
कहानी के क्षेत्र में भी प्रेमचंद का योगदान अतुलनीय है। 'ईदगाह' में बच्चे हामिद की मासूमियत, 'कफन' में गरीबी की विडंबना, 'पूस की रात' में किसान के संघर्ष, और 'दो बैलों की कथा' में पशुओं के माध्यम से मानवीय भावनाओं का चित्रण - ये सभी कहानियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
प्रेमचंद की रचनाओं की खासियत यह है कि वे केवल मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं। उनके पात्र इतने जीवंत हैं कि लगता है वे हमारे आस-पास ही कहीं मिल जाएंगे।
विचारधारा और लेखन शैली - सामाजिक क्रांति के सूत्रधार
मुंशी प्रेमचंद की लेखन शैली में सादगी और प्रभावशीलता का अनूठा मेल था। उन्होंने कभी कठिन भाषा का प्रयोग नहीं किया। उनका मानना था कि साहित्य आम जनता के लिए होना चाहिए, न कि केवल विद्वानों के लिए। इसीलिए उनकी भाषा में ग्रामीण जीवन की सहजता और शहरी परिवेश की व्यावहारिकता दोनों दिखाई देती है।
प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री-पुरुष समानता, जाति-पाति का विरोध, और सामाजिक न्याय के विचार प्रमुखता से मिलते हैं। उन्होंने अपने समय से कहीं आगे की बातें कहीं। दहेज प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों पर उन्होंने निडरता से लिखा।
उनकी रचनाओं में गरीब और मजदूर हमेशा सहानुभूति पाते हैं, जबकि पूंजीपति और जमींदार आलोचना के पात्र बनते हैं। यह उनकी प्रगतिशील सोच का परिचायक है।
विरासत और प्रभाव
मुंशी प्रेमचंद का देहांत 8 अक्टूबर 1936 को हुआ, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में जो सामाजिक समस्याएँ हैं, उनका चित्रण प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में किया था। गरीबी, भ्रष्टाचार, जातिवाद, और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दे आज भी मौजूद हैं।
आधुनिक हिंदी साहित्य पर प्रेमचंद का प्रभाव अमिट है। फणीश्वरनाथ रेणु, यशपाल, अमृतलाल नागर जैसे बाद के लेखकों ने प्रेमचंद से प्रेरणा ली। आज भी जब कोई लेखक ग्रामीण जीवन या सामाजिक समस्याओं पर लिखता है, तो प्रेमचंद की परंपरा का ही निर्वाह करता है।
उनकी कई रचनाओं पर फिल्में बनी हैं और आज भी स्कूल-कॉलेजों में उनकी कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं। यह उनकी कालजयी प्रासंगिकता का प्रमाण है।
निष्कर्ष
मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय केवल एक लेखक की जीवनी नहीं, बल्कि एक युग की कहानी है। उन्होंने अपने संघर्षों को अपनी शक्ति बनाया और समाज की आवाज बने। उनकी रचनाओं में जो संवेदना है, वह उनके व्यक्तिगत अनुभवों से आई थी। गरीबी, अभाव, और सामाजिक भेदभाव को उन्होंने खुद झेला था, इसीलिए उनके पात्र इतने जीवंत लगते हैं।
प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने साहित्य को जनता से जोड़ा। उनसे पहले साहित्य राजा-महाराजाओं और देवी-देवताओं की कहानियों तक सीमित था, लेकिन प्रेमचंद ने आम आदमी को साहित्य का नायक बनाया। होरी, हामिद, घीसू-माधव जैसे पात्र आज भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
आज जब हम सामाजिक न्याय, समानता, और मानवीय मूल्यों की बात करते हैं, तो प्रेमचंद की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। उनका जीवन और साहित्य आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
