जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
प्रस्तावना
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे, जिन्होंने काव्य, नाटक, उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत कीं। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, इतिहास और दार्शनिक चिंतन का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माण में उनका योगदान अविस्मरणीय है। प्रसाद जी ने अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को वैचारिक गहराई, कलात्मक सौंदर्य और राष्ट्रीय चेतना प्रदान की।
जन्म
एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि
जन्म:
30 जनवरी
1889
जन्म
स्थान:
काशी
(वाराणसी),
उत्तर
प्रदेश
मृत्यु:
15 नवंबर
1937
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम देवीप्रसाद था, जो सुँघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध थे और तंबाकू का व्यवसाय करते थे। प्रसाद जी का परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था और काशी की सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी रखता था। उनके घर में विद्वानों और साहित्यकारों का आना-जाना लगा रहता था, जिससे बालक जयशंकर को साहित्यिक वातावरण मिला।
किंतु बचपन में ही पिता और बड़े भाई की मृत्यु के कारण उन्हें पारिवारिक दायित्वों का बोझ उठाना पड़ा। सत्रह वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें परिवार का मुखिया बनना पड़ा। इस त्रासदी ने उनके व्यक्तित्व और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। व्यक्तिगत दुख और पारिवारिक संघर्षों ने उनके साहित्य में करुणा, वेदना और मानवीय संवेदनाओं को गहराई प्रदान की। इसके बावजूद उन्होंने कभी साहित्य साधना में कमी नहीं आने दी।
शिक्षा
एवं साहित्यिक साधना
प्रसाद जी की औपचारिक शिक्षा सीमित रही। उन्होंने क्वींस कॉलेज, वाराणसी से आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की, किंतु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वे आगे की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। इसके बाद उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी का गहन अध्ययन किया। उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण और भारतीय दर्शन का विस्तृत अध्ययन किया, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
काशी के सांस्कृतिक वातावरण और उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने उन्हें एक विद्वान साहित्यकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे नियमित रूप से काशी की साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेते थे और समकालीन साहित्यकारों से संपर्क में रहते थे। उनकी विद्वता और साहित्यिक प्रतिभा ने अल्पायु में ही उन्हें हिंदी साहित्य जगत में प्रतिष्ठा दिला दी।
साहित्यिक
यात्रा का आरंभ
प्रसाद जी ने अपनी साहित्यिक यात्रा कवि के रूप में प्रारंभ की। प्रारंभिक रचनाएँ ब्रजभाषा में थीं, किंतु शीघ्र ही उन्होंने खड़ीबोली हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनकी प्रथम कहानी "ग्राम" 1911 में इंदु पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके पश्चात उन्होंने निरंतर साहित्य सृजन किया और विभिन्न विधाओं में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।
उनके साहित्यिक जीवन को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम चरण में वे रोमांटिक और प्रेम प्रधान रचनाएँ लिखते रहे। द्वितीय चरण में छायावादी काव्य और ऐतिहासिक नाटकों की रचना की। तृतीय चरण में उन्होंने दार्शनिक गहराई और राष्ट्रीय चेतना से युक्त रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
छायावाद
युग में योगदान
जयशंकर प्रसाद छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। छायावाद आंदोलन के अन्य प्रमुख कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा थे। छायावाद में सूक्ष्म कल्पना, प्रकृति चित्रण, रहस्यवाद और व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रमुख तत्व होते हैं। प्रसाद जी ने अपनी कविताओं में प्रकृति को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ा और आध्यात्मिक गहराई प्रदान की।
उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना, मानवीय मूल्यों और भारतीय संस्कृति का गौरवपूर्ण चित्रण मिलता है। प्रसाद जी का छायावाद केवल व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि उसमें सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय भावना भी निहित है। उन्होंने छायावादी काव्य को दार्शनिक आधार प्रदान किया और उसे वैचारिक गंभीरता से समृद्ध किया। उनकी कविता में भारतीय दर्शन, वेदांत और बौद्ध दर्शन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
प्रमुख
साहित्यिक रचनाएँ
काव्य कृतियाँ
कामायनी (1936): यह प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ और हिंदी साहित्य की महाकाव्यात्मक रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्धा और इड़ा के माध्यम से मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को दार्शनिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। यह रचना पंद्रह सर्गों में विभाजित है - चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इड़ा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य और आनंद। कामायनी में मानव की विकास यात्रा को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह हिंदी साहित्य की अमर कृति है।
आँसू (1925): यह वेदना और करुणा की कविताओं का संग्रह है, जिसमें व्यक्तिगत दुख और विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति है। इस काव्य संग्रह में प्रेम की पीड़ा और विछोह की व्यथा को अत्यंत संवेदनशील रूप में चित्रित किया गया है।
लहर (1933): इस काव्य संग्रह में प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति के सजीव चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। लहर की कविताएँ छायावाद की परिपक्व अवस्था का प्रतिनिधित्व करती हैं।
झरना (1918): यह प्रसाद जी का प्रारंभिक काव्य संग्रह है, जिसमें छायावादी शैली की झलक मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति चित्रण और कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रमुख है।
नाटक
प्रसाद जी ने हिंदी नाटक साहित्य को नई दिशा प्रदान की। उनके नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं और उनमें राष्ट्रीय चेतना की प्रबल अभिव्यक्ति है।
चंद्रगुप्त (1931): यह ऐतिहासिक नाटक मौर्य साम्राज्य की स्थापना और चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर आधारित है। इसमें चाणक्य के व्यक्तित्व और राजनीतिक कूटनीति का उत्कृष्ट चित्रण है।
स्कंदगुप्त (1928): गुप्त साम्राज्य के पतन काल को केंद्र में रखकर लिखा गया यह नाटक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। इसमें देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावना को प्रमुखता दी गई है।
ध्रुवस्वामिनी (1933): यह नाटक गुप्तकालीन इतिहास और नारी सशक्तिकरण का सशक्त प्रस्तुतीकरण है। इसमें स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का प्रश्न उठाया गया है।
अन्य नाटक: सज्जन, कल्याणी परिणय, राज्यश्री, जनमेजय का नागयज्ञ, विशाख, एक घूँट आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक हैं।
उपन्यास
कंकाल (1929): यह उपन्यास वाराणसी के तत्कालीन समाज में व्याप्त पाखंड, धार्मिक आडंबर और नैतिक पतन का यथार्थवादी चित्रण करता है। इसमें समाज की विसंगतियों को तीखे व्यंग्य के साथ प्रस्तुत किया गया है।
तितली (1934): यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जो मानवीय संबंधों की जटिलताओं और स्त्री-पुरुष के भावनात्मक द्वंद्व को उजागर करता है।
इरावती (अपूर्ण): यह उपन्यास अपूर्ण रह गया। इसमें भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उपयोग किया गया था।
कहानी
संग्रह
जयशंकर प्रसाद हिंदी कहानी के विकास में महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं। उनकी कहानियों में ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तत्वों का समावेश है।
छाया (1912): प्रसाद जी का प्रथम कहानी संग्रह।
प्रतिध्वनि (1926): इसमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कहानियाँ संकलित हैं।
आकाशदीप (1929): इसमें ऐतिहासिक और कल्पनाप्रधान कहानियाँ हैं। "आकाशदीप" उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक मानी जाती है।
आँधी (1931): इस संग्रह में सामाजिक समस्याओं पर आधारित कहानियाँ हैं।
इंदु-माला (1936): यह उनका अंतिम कहानी संग्रह है। "पुरस्कार", "मधुआ", "गुंडा" जैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ इसमें संकलित हैं।
भाषा
एवं शैली
प्रसाद जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित और साहित्यिक है। उन्होंने तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हुए भी भाषा को सहज और प्रभावशाली बनाया। उनकी शैली में प्रतीकात्मकता, बिंब विधान और संगीतात्मकता के तत्व प्रमुखता से पाए जाते हैं। नाटकों में संवाद शैली सशक्त और ओजपूर्ण है, जबकि काव्य में भावात्मक और कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है।
उनकी भाषा में लाक्षणिकता और व्यंजना शक्ति का विशेष महत्व है। वे शब्दों के माध्यम से जटिल भावों और दार्शनिक विचारों को सरलता से व्यक्त करने में सिद्धहस्त थे। प्रकृति चित्रण में उनकी भाषा अत्यंत सजीव और मनोहारी हो जाती है।
पुरस्कार
एवं सम्मान
जयशंकर प्रसाद को उनके जीवनकाल में उचित मान्यता नहीं मिल पाई, किंतु मृत्यु के बाद उनकी रचनाओं को व्यापक स्वीकृति मिली। आज वे हिंदी साहित्य के सर्वाधिक सम्मानित रचनाकारों में गिने जाते हैं। उनकी कृति "कामायनी" को हिंदी साहित्य की अमर कृति माना जाता है और विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। उनके सम्मान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय और अन्य संस्थानों में अनेक स्मारक और पुरस्कार स्थापित किए गए हैं।
साहित्यिक
महत्व एवं विरासत
जयशंकर प्रसाद ने हिंदी साहित्य को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं। उन्होंने छायावादी काव्य को दार्शनिक गंभीरता दी और नाटक विधा को ऐतिहासिक आधार पर पुनर्स्थापित किया। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिकता का अद्भुत समन्वय है। वे हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रणेता और प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
प्रसाद जी की रचनाओं में मानवतावाद, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना का त्रिवेणी संगम है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय इतिहास के गौरवशाली अध्यायों को पुनर्जीवित किया और राष्ट्रीय आत्मसम्मान को जागृत किया। उनके नाटक भारतीय रंगमंच की महत्वपूर्ण धरोहर हैं।
जयशंकर
प्रसाद का हिंदी साहित्य में
योगदान अतुलनीय है। मात्र 48
वर्ष
की अल्पायु में उन्होंने जो
साहित्यिक धरोहर दी,
वह
आने वाली पीढ़ियों के लिए
प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।
उनकी रचनाएँ आज भी शोध,
अध्ययन
और प्रतियोगी परीक्षाओं में
महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
प्रसाद जी का व्यक्तित्व और
कृतित्व हिंदी साहित्य की
अमूल्य निधि है। वे सच्चे
अर्थों में एक युगप्रवर्तक
साहित्यकार थे जिन्होंने
हिंदी साहित्य को विश्व साहित्य
में सम्मानजनक स्थान दिलाया।
