नवरात्रि: आराधना से आर्थिकी तक

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नवरात्रि: आराधना से आर्थिकी तक , satire, व्यंग्य


नवरात्रि: आराधना से आर्थिकी तक

परंपरा के आईने में आधुनिकता का चेहरा

नवरात्रि का आगमन होते ही भारतीय समाज में एक विचित्र किंतु नियमित रूपांतरण दिखाई देता है। यह वह अद्भुत कालखंड है जब हमारी सामूहिक चेतना, जो बारह महीने तक भौतिकवाद के गहन अंधकार में डूबी रहती है, अचानक से आध्यात्मिक प्रकाश से भर उठती है। जो व्यक्ति वर्षभर धर्म का नाम सुनकर भी मुंह बनाते हैं, वे अकस्मात् ही शक्ति के परम उपासक बन जाते हैं। यह रूपांतरण इतना त्वरित और व्यापक होता है मानो कोई दैवीय जादूगर ने अपनी छड़ी हिलाकर पूरे समाज को धर्मपरायण बना दिया हो।

नवरात्रि आज केवल एक धार्मिक पर्व नहीं रहा, बल्कि हमारी सभ्यता की विरोधाभासी प्रकृति का एक जीवंत और मनोरंजक दस्तावेज़ बन गया है। यह वह समय है जब परंपरा और प्रगतिशीलता के बीच का शाश्वत संघर्ष अपने सबसे नाटकीय और हास्यास्पद रूप में प्रकट होता है। एक तरफ हमारे पास हज़ारों वर्ष पुरानी पवित्र परंपराएं हैं, दूसरी तरफ आधुनिकता की चकाचौंध है—और इन दोनों के बीच का संघर्ष नवरात्रि के नौ दिनों में सबसे स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।


शक्ति-पूजा का महान् सिद्धांत और उसकी गहनता

धार्मिक और दार्शनिक दृष्टि से नवरात्रि का अर्थ अत्यंत गहन और पवित्र है। यह केवल नौ दिनों का उत्सव नहीं, बल्कि मानव चेतना के क्रमिक विकास की एक संपूर्ण योजना है। देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना—शैलपुत्री की प्रकृति-शक्ति से प्रारंभ होकर सिद्धिदात्री की परम सिद्धि तक—वास्तव में मानव अंतर्चेतना के उत्तरोत्तर परिष्करण का मार्ग है।

महिषासुर वध की गाथा केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि एक गूढ़ दर्शन है। यह दिखाती है कि जब निरंकुश शक्ति (महिषासुर) और अहंकार का गठजोड़ होता है, तो केवल शक्ति का स्त्रीत्व रूप (दुर्गा) ही उसका संहार कर सकता है। यह संकेत देता है कि सृजनात्मक और संवेदनशील शक्ति ही विनाशकारी और कठोर शक्ति पर विजय प्राप्त कर सकती है।

हमारी संस्कृति में शक्ति को स्त्रीलिंग माना जाना कोई संयोग नहीं है। सृजन से लेकर संहार तक, पालन से लेकर संरक्षण तक, प्रकृति की हर गतिविधि में स्त्री-तत्व की प्रधानता दिखाई देती है। नवरात्रि इसी शाश्वत सत्य का उत्सव है—या कम से कम मूल रूप में यही था। आज इस गहन दर्शन के साथ क्या हो रहा है, यह देखना अत्यंत दिलचस्प है।


आधुनिक गरबा: जब देवालय बन गया फैशन का रैंप

परंतु आज के गरबा मैदानों में जो दृश्यावली दिखाई देती है, वह किसी अंतर्राष्ट्रीय फैशन वीक से कम भव्य नहीं लगती। जहां कभी सफेद खादी और सूती वस्त्रों में सादगी से सजे भक्तजन, अपने मन की शुद्धता के साथ नृत्य में लीन होते थे, वहां अब हज़ारों रुपए के डिज़ाइनर चनिया-चोली में सजे-संवरे फैशन मॉडल्स की भीड़ नज़र आती है।

गरबा के इन आधुनिक मैदानों में जो दृश्य दिखता है, वह आध्यात्मिक साधना का कम, सामाजिक प्रतिस्पर्धा का अधिक आभास देता है। यहां प्रश्न यह नहीं कि आपका नृत्य कितना भावपूर्ण है, बल्कि यह है कि आपका लहंगा कितने रुपए का है और आपके गहने कितने चमकदार हैं। डांडिया की लकड़ियां अब सिल्वर प्लेटेड मिलती हैं, और कोलियां स्वारोवस्की क्रिस्टल से जड़ी होती हैं।

सबसे विस्मयकारी बात यह है कि यह सब कुछ 'गुजराती परंपरा' और 'सांस्कृतिक मूल्यों' के नाम पर होता है। मानो हमारे पूर्वजों ने भी इसी भव्यता और चमक-दमक के साथ, प्रोफेशनल कोरियोग्राफर की निगरानी में, एयर कंडीशंड पंडालों में गरबा किया था। यह कैसी विडंबना है कि भक्ति का प्रदर्शन इतना महंगा हो गया है कि गरीब व्यक्ति सिर्फ दर्शक बनकर रह जाता है, भक्त नहीं बन सकता।


उपवास: आत्म-संयम या गैस्ट्रोनॉमी का उत्सव

उपवास की परंपरा के साथ जो कुछ हो रहा है, वह और भी मनोरंजक और विचारणीय कहानी कहता है। जो प्रथा मूल रूप से इंद्रिय-निग्रह, मानसिक एकाग्रता और आत्म-संयम के लिए विकसित की गई थी, वह आज विशेष व्यंजनों के महाभोज और पाक-कला की प्रदर्शनी में रूपांतरित हो गई है।

आज के बाज़ारों में 'व्रत के व्यंजन' का जो असीमित मेन्यू उपलब्ध है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि उपवास कोई त्याग नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार का भोग है। साबूदाना के सत्रह अलग-अलग प्रकार, सिंघाड़े आटे के चौबीस विविध रूप, समा के चावल के असंख्य प्रयोग, कुट्टू के आटे की अनगिनत रेसिपीज़—यह सब देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे पूर्वजों को उपवास का सही मतलब ही समझ नहीं आया था, जो वे इतनी सादगी से केवल दूध-फल पर संतुष्ट रह जाते थे?

आजकल तो 'फास्टिंग फूड' नाम से विशेष रेस्टोरेंट खुल गए हैं, जहां व्रत के नाम पर जो परोसा जाता है, उसकी विविधता और स्वाद नियमित भोजन को भी मात दे देते हैं। यह कैसा उपवास है जो पेट को संतुष्ट करने के अधिक तरीके सिखाता है, वरन् उसे नियंत्रित करने के कम?


बाज़ार में बिकती आस्था और धर्म का व्यापारीकरण

नवरात्रि के दिनों में बाज़ार की चतुराई और व्यापारिक कुशाग्रता देखने योग्य है। अचानक से हर छोटी-बड़ी दुकान 'धार्मिक' हो जाती है। सामान्य दिनों में जो दुकानदार धर्म-कर्म की बात सुनकर मुंह बिचकाते हैं, वे नवरात्रि आते ही 'जय माता दी' के नारों से अपनी दुकानें गुंजा देते हैं।

'व्रत स्पेशल', 'देवी भोग', 'नवरात्रि ऑफर', 'माता रानी का प्रसाद'—जैसे आकर्षक नारे लगाकर व्यापारी अपने सामान्य उत्पादों को विशेष धार्मिक महत्व और पवित्रता का लेबल दे देते हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यह सब कुछ प्रीमियम दरों पर बिकता है, क्योंकि आखिर 'भगवान के लिए' जो किया जा रहा है, उसमें पैसे का क्या हिसाब?

होटलों और रेस्टोरेंट्स में 'नवरात्रि स्पेशल थाली' के नाम पर जो परोसा जाता है, उसकी कीमत सामान्य दिनों के भोजन से दो-तिगुनी होती है। और सबसे दिलचस्प बात यह कि इस महंगाई का औचित्य यह दिया जाता है कि यह 'व्रत का खाना' है, इसलिए विशेष सामग्री और मेहनत लगती है। क्या यह संयोग है कि धर्म जितना पवित्र होता जाता है, व्यापार उतना ही लाभकारी हो जाता है?


सोशल मीडिया पर धार्मिकता का प्रदर्शन

आधुनिक युग की सबसे बड़ी देन सोशल मीडिया ने नवरात्रि को भी प्रभावित किया है। अब भक्ति केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं रह गई, बल्कि एक सामाजिक घटना बन गई है जिसे 'पोस्ट' करना, 'शेयर' करना और 'लाइक' लेना आवश्यक हो गया है। गरबा की तस्वीरें, व्रत के व्यंजनों की फोटो, मंदिर में दर्शन के सेल्फीज़—सब कुछ सोशल मीडिया पर अपलोड करना अब भक्ति का अभिन्न अंग बन गया है।

यहां सबसे दिलचस्प बात यह है कि भक्ति की प्रामाणिकता का मापदंड अब 'लाइक्स' और 'कमेंट्स' हो गया है। जिसकी गरबा की तस्वीर पर ज्यादा लाइक्स आते हैं, वह समझा जाता है कि ज्यादा भक्त है। व्रत के व्यंजनों की जो फोटो वायरल होती है, वह मान लिया जाता है कि सबसे पवित्र प्रसाद है।


खोया हुआ संदेश और उसकी पुनर्खोज

इस भव्य चमक-दमक, प्रदर्शन और व्यापारिकता के बीच नवरात्रि का वास्तविक और गहन संदेश कहीं विलुप्त हो गया है। यह पर्व मूल रूप से आत्म-शुद्धिकरण, मानसिक एकाग्रता, आंतरिक शक्ति के विकास और व्यक्तित्व के समग्र परिष्करण के लिए निर्मित किया गया था। नौ दिनों का यह अनुशासन और संयम व्यक्ति को अपनी दैनिक आदतों की जंजीरों से मुक्त कराकर एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतना में प्रवेश कराने का माध्यम था।

नारी-शक्ति की पूजा का यह पावन पर्व हमें याद दिलाता था कि सृष्टि की समस्त शक्ति, सृजनात्मकता और करुणा का मूल स्रोत स्त्री-तत्व में निहित है। कन्या-भोज की पारंपरिक विधि इस गूढ़ सत्य को मूर्त रूप देती थी कि हर बालिका में देवत्व का अंश निवास करता है, और उसका सम्मान करना केवल सामाजिक शिष्टाचार नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कर्तव्य है।

परंतु आज जब गरबा के मैदानों में युवतियों को घूरने, उनकी तस्वीरें खींचने और फब्तियां कसने की होड़ लगती है, तो यह स्थिति न केवल विडंबना है, बल्कि हमारी सभ्यता की दोहरी मानसिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक तरफ हम शक्ति की देवी की आराधना करते हैं, दूसरी तरफ उसी शक्ति के मानवीय रूप का अपमान करते हैं।


सच्ची शक्ति की पहचान और उसका स्वरूप

देवी दुर्गा की वास्तविक शक्ति उनके स्वर्णिम आभूषणों, रेशमी वस्त्रों या चमकदार अस्त्र-शस्त्रों में नहीं, बल्कि उनके अटूट संकल्प, निर्भीक साहस और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता में निहित थी। उसी प्रकार हमारी वास्तविक शक्ति भी बाहरी प्रदर्शन, महंगी पोशाकों या भव्य आयोजनों में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता, चरित्र की दृढ़ता और मानसिक संयम में निहित है।

सच्चा उपवास केवल पेट को भूखा रखना नहीं, मन को पवित्र विचारों से भरना है। सच्चा व्रत खाना-पीना छोड़ना नहीं, बुरे विचारों, नकारात्मक भावनाओं और अनैतिक कार्यों को त्यागना है। सच्ची पूजा मंदिरों में घंटे बजाना नहीं, दैनिक जीवन में न्याय, करुणा और सत्य का आचरण करना है।


समाज के समक्ष प्रश्न और आत्मचिंतन की आवश्यकता

आज जब हमारा समाज तेज़ी से भौतिकवादी मूल्यों की दिशा में बढ़ता जा रहा है, तो नवरात्रि जैसे पावन पर्व हमें रुककर गहराई से सोचने और आत्मचिंतन करने पर विवश करते हैं। क्या हम वास्तव में उन आदर्शों और मूल्यों को जी रहे हैं जिनकी हम पूजा करते हैं? क्या हमारी धार्मिकता केवल बाहरी प्रदर्शन है या आंतरिक परिवर्तन भी?

जब हम देवी दुर्गा की वंदना करते हैं लेकिन समाज में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार को मूकदर्शक बनकर देखते हैं, तो क्या यह धर्म है या केवल कर्मकांड? जब हम शक्ति की आराधना करते हैं लेकिन दुर्बलों का शोषण करते हैं, तो क्या यह भक्ति है या केवल स्वार्थ?


भविष्य की दिशा और समाधान

शायद यह समय आ गया है जब हम अपने त्योहारों और परंपराओं को उनकी मूल भावना और गहन अर्थों के साथ पुनर्जीवित करें। नवरात्रि को केवल नौ दिनों का उत्सव या सामाजिक अवसर न मानकर, जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना और आध्यात्मिक विकास के माध्यम के रूप में स्वीकार करें।

यदि हम इसे केवल सामाजिक प्रदर्शन का अवसर, व्यापारिक लाभ का साधन या फैशन स्टेटमेंट का मौका मानकर चलते रहेंगे, तो हम न केवल इसके वास्तविक लाभों से वंचित रह जाएंगे, बल्कि अपनी भावी पीढ़ियों के लिए इन अमूल्य परंपराओं को विकृत करके छोड़ जाएंगे।


निष्कर्ष: एक नई शुरुआत की संभावना

सच्ची नवरात्रि वह होगी जब हम बिना ढोल-नगाड़े के शोर के, बिना चकाचौंध के प्रदर्शन के, बिना महंगे दिखावे के, अपने भीतर की उस शाश्वत शक्ति को पहचानें और उसे जगाएं जो हमारे अंदर सदियों से सुप्त पड़ी है। जब हम समझ जाएंगे कि असली गरबा हमारे हृदय में होता है, असली उपवास हमारे मन का होता है, और असली शक्ति हमारे चरित्र में निहित होती है।

जब तक यह बोध नहीं आता, जब तक यह आंतरिक जागृति नहीं होती, तब तक हमारी नवरात्रि केवल एक सुंदर और भव्य नाटक ही रहेगी—जिसमें मंच-सज्जा बेहतरीन होती है, पात्रों के वेश-भूषा आकर्षक होते हैं, संवाद प्रभावी होते हैं, लेकिन दर्शकों के जीवन में कोई वास्तविक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता। और शायद यही सबसे बड़ी विडंबना है कि हमने अपने सबसे पावन उत्सवों को भी मनोरंजन के साधन में बदल दिया है।

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